चुदासी घोड़ीयों की टोली | Chudasi Ghodiyon Ki Toli
चुदासी घोड़ीयों की टोली | Chudasi Ghodiyon Ki Toli
चाँद की दूधीया रौशनी में, दमौरी गाँव जगमगा रहा था। वैसे तो हर रात, दमौरी गाँव में इस वक्त सूना पन रहता था, लेकिन आज़ की रात, गाँव में लोगो की चहल-कदमी मची हुई थी...
क्या खास बात थी आज? वो खास बात ये थी की, आज दमौरी गाँव में हर साल आज़ के ही दीन लगने वाला प्रीय मेला, लगा हुआ था।
रात में लगा हुआ ये मेला, बहुत ही सुदर दृश्य और लुभावना लग रहा था| गाँव के लोग आज के दीन खुब खुशीया मनाते थे।
और इसी गाँव की रहने वाली एक 1९ वर्ष की लड़की, अंगूरी, आज मेले में जाने के लीये काफी उत्साहीत थी। हरे रंग की घाघरे और चोली में, आज अंगूरी का नीखार उच्च स्तर पर था। चोली मे पूरी तरह से कसी उसकी सुड़ौल चूँचीया, उस चोली की शोभा में चार चाँद लगा रहे थे।
एक सुदर सी लड़की, आज अपने आप को आईने में देखती हुई खुद का श्रृंगार कर रही थी की तभी...
—‟अरे...रामा, अभी तक तू तैयार नही हुई! इस लड़की को तो तैयार होने के लीये सारा दीन भी कम पड़ जाता है। जल्दी से तैयार हो-कर आँगन में आ जाना, सब वहीं पर बैठी तेरा इंतजार कर रहीं है।”
ये आवाज़ सुनते हुए भी, अंगूरी की नज़र आईने पर से ना हटी। और उस औरत की बात सुनते हुए बोली-
अंगूरी—; —‟ठीक है माँ। तू चल! मै आ रही हूँ, बस थोड़ी देर और।”
कुछ देर के बाद, जब अंगूरी जब आँगन में पहुंचती है, तो देखती है की, आँगन में कफी औरते और लड़कीया खाट पर बैठी हसीं-हसारत कर रही थी। ये देख कर अंगूरी बोली...
अंगूरी—; —‟अब चल माँ...अब देर नही हो रही है?”
अंगूरी की बात सुनकर, उन औरतों में बैठी, एक औरत बोली-
—‟अच्छा...खुद, कीसी महारानी की तरह तैयार होने में इतना बख़त लगाती है! और उल्टा हमें कह रही है की, देर हो रही है...!”
अंगूरी—; —‟तू...तो ना ही बोले तो, अच्छा हैं...रधिया चाची! जैसे मुझे पता नही की, तू भी महारानी की तरह तैयार होने में कीतना बख़त लगाती है।”
उन दोनो की बात सुनते हुए, एक औरत बोली-
—‟अच्छा तूम दोनो चाची और बीटीया बाद में झगड़ा कर लेना...अब चल!”
ये कहकर, आँगन में बैठी सभी औरते खाट पर से उठ कर चलने लगती है की तभी एक लड़की भागते हुए आँगन में आती है...और बोली-
—‟रे अंगूरी, क्या कर रही है तू इतनी देर? कब से मै, बीट्टो, अन्नू, और रंजू तेरा नीम्मो के घर पर इंतजार कर रही है?”
अंगूरी—; —‟अच्छा गलती हो गयी...महारानी! अब चल जल्दी! अच्छा सुमन बुआ और पूनम मौसी भी है क्या?"
—‟हां...हां, तेरी प्यारी बुआ और मौसी भी है ! अब चल।”
उन दोनो की बाते सुनकर, रधिया हसंते हुए बोली-
रधिया—; —‟देख रही हो दीदी! कीतनी पगला गयी हैं ये लड़कीयां मेले में जाने के लिए...”
रधिया की बात सुनकर, अंगूरी की माँ बोली-
—‟अरे...बच्चीयां हैं! अब खुश नही होंगी तो क्या ससुराल में जा कर खुश होंगी?”
रधिया—; —‟अरे...काहे की बच्चीयां दीदी! घोड़ीयोँ की टोली है इनकी!”
❏❏❏
अब तक सब औरते, और लड़कीयाँ, गाँव के बीच रास्ते पर चल रहे थे। गाँव का कच्चा रास्ता आज़ सूनसान नही था। लोगों की चहल-कदमी नीरतंर बनी थी। कुछ बच्चो के हाथों में रंग-बीरगें गुब्बारे थे, तो कुछ बच्चो के हाथ में ख़ीलौने।
जो बच्चे काफी छोटे थे, वो कुछ नही तो, अपनी माँ की गोद में बैठ कर मुह में घुसाये पोंपा ही बजा रहे थे।
अंगूरी,उसकी माँ, चाची, सहेलीयों और कुछ गाँव की औरते के साथ मेले में पहुँची तो, मेले का रंग-बीरगां चमचमाता नज़ारा देख कर खुशी से झूम उठी! साथ ही साथ उसकी सहेलीयों का भी वही प्रतीक्रीया थी|
सब लोग मेले घूमने का लुफ्त उठाने लगे, जरुरत की सामान भी खरीद रहे थे! मेले की सज़ावट और सुदंरता तो सच में लुभावना था। मेले में चहल-कदमी करते वक्त रधिया की नज़र, एक ऐसे दुकान पर पड़ी की, उसके कदम वहीं रुक जाते है।
—‟क्या हुआ री...काहे रुक गई?”
रधीया—;ߞ‟अरे...दीदी! तनीक उ दुकान की तरफ़ तो देखो...!”
रधिया के बोलते ही, बाकी औरतो की नज़र उस दुकान की तरफ़ पलटी तो, देकखकर सन्न रह जाती है...!
—‟तू पगला गई क्या? इस उमर ये सब पहनेगी हरज़ाई?”
रधिया—;हाँ... कम्मो दीदी! पहेनुगीं भी, और पहनाउंगी भी।”
और ये कहकर रधिया हसने लगती है। रधिया के साथ खड़ी बाकी औरते भी रधिया की बात सुनकर हसने लगती है। उनको हसतां देख...कम्मो भी ना चाहते हुए मुस्कुरा पड़ती है।
कम्मो—‟तू नही मानेगी छीनाल! जरा पप्पू के बारे में तो सोंच! अगर कहीं उसको पता चल गया की, इस उमर में , उसकी माँ रंग-बीरंगी कच्छीयां पहनती है तो, क्या सोचेगा वो?—;
रधिया—‟हे भगवान! दीदी तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे की मै सीर्फ कच्छी पहन कर ही घर में घूमने वाली हूं। जीसे देख कर मेरे बेटे को पता चला जायेगा की उसकी मां कच्छी पहनती है। तूम भी ना दीदी..! कुछ भी सोचती रहती हो। अब लल्ली से ही पूछ लो? इसका मरद बाज़ार से इसके लीये कच्छीया लाता रहता है, तो क्या ये पहनती नही है? क्या इसके घर में इसका छोरा नही है?”
कम्मो—‟अच्छा...अच्छा ठीक है। चल खरीद ले!”
रधिया, कम्मो और बाकी औरतो के साथ! कच्छी बेचने वाली दुकान पर आ कर, कच्छीयां और अगींया खरीदने लगती है। केवल कम्मो ही कुछ नही खरीद रही थी। ये देखकर वो दूकान वाली बोली-
—‟अरे बहीन...! तूम भी काहे नाही ले लेती, एक-दो कच्छीयां? तूम्हरे उपर तो कमाल लगेगीं ये कच्छीयां।”
ये सूनकर...रधिया ने कहा-
रधिया—‟बील्कुल ठीक कह रही हो तूम! पूरे गाँव-टोला में, कम्मो दीदी के जैसी कीसी की भी गांड नही है। गांड ही क्या...मेरी जेठानी की चूंचीया, मोटी जाँघे, कूल्हे ये सब को भगवान ने कीसी अलग ढांचे में ही बना कर भेजा है।”
दुकान वाली—‟बील्कुल ठीक कहती हो बहीन! देखो ना, अभी भी आस-पास खड़े मरदो की नज़र, इन पर ही कूद रही है। मै तो कहती हूँ की, एक - दो कच्छीयां खरीद ही लो, सुरक्षीत रहोगी दीदी! नही तो का पता कभी गलती से साड़ी उठ गयी तो...पूरा ख़जाना दीख जायेगा।
कम्मो—‟बात तो तू ठीक कह रही है। ठीक है दे...दे दो चार!”
कम्मो,रधिया,लल्ली और बाकी दो औरतों ने भुी, रंग-बीरंगी कच्छीयों की खरीदारी की...! सब लोग काफी रात तक मेले में घूमने का लूफ्त उठाते रहे और फीर घर पर हसीं-खुशी चले आते है....