तब मैने फ़ैसला किया कि मुझे बेड से उठ जाना चाहिए और उसके थोड़ा नज़दीक होने की कोशिश करनी चाहिए, सही मैं मुझे ऐसा ही करना चाहिए था. मैं जानता था अगर मैने उसके नज़दीक जाने की कोशिश की तो कुछ ना कुछ होना तय था. मुझे एक बहाना चाहिए था उठने का और बेड से उतरने का. तब हम जिस्मानी तौर पर एक दूसरे के करीब आ जाते और कौन जानता है तब क्या होता. मैं सिरफ़ एक ही बहाना बना सकता था; बाथरूम जाने का.
जब मैं बाथरूम से बाहर आया तो देखा वो फिर से उसी कुर्सी पर बैठी हुई है और मेरे बाहर आने का इंतेज़ार कर रही है. जिस अंदाज़ में वो बैठी थी, बड़ा ही कामुक था. वो कुर्सी के किनारे पर बैठी हुई थी, उसके हाथ कुर्सी को आगे से और जाँघो के बाहर से पकड़े हुए थे, उसकी टाँगे सीधी तनी हुई थी, और उसका जिस्म थोड़ा सा आगे को झुका हुआ था. उसकी नाइटी उसके घुटनो से थोड़ा सा उपर उठी हुई थी और उसकी जाँघो का काफ़ी हिस्सा नग्न था, उसकी जांघे बहुत ही सुंदर दिख रही थी.
अद्भुत संजोग प्यार का | Adbhut Sanjog Pyaar Ka | Update 11
अद्भुत संजोग प्यार का | Adbhut Sanjog Pyaar Ka | Update 11
मुझे अपनी अलमारी तक जाने के लिए उसके पास से गुज़रना था. जब मैं उसके पास से उसके पाँव के उपर से गुज़रा तो मैने उसके पाँव एकदम से हिलते देखे जैसे उसे मेरे इतने पास से गुज़रने के कारण मेरे द्वारा कुछ करने की आशंका हो. शायद वो स्पर्श पाना चाहती थी. उस समय वो बहुत ही मादक लग रही थी और मैं उसे छूने के लिए मरा जा रहा था.
मैं बेड पर उस स्थान पर बैठा जो उसकी कुर्सी के बिल्कुल नज़दीक था. अब हम एक दूसरे के सामने बैठे थे और हमारे बीच दूरी बहुत कम थी. मेरे पाँव लगभग उसके पाँव को छू रहे थे. हम दोनो वहाँ खामोशी से बैठे थे क्योंकि हमारे पास कहने के लिए कुछ भी नही था. कहते भी तो आख़िर क्या कहते? माहौल बहुत ही प्यारनुमा था मगर हम एक दूसरे से प्यार जता नही सकते थे. मैं आगे बढ़कर उसका हाथ नही थाम सकता था. वो अपनी जगह से उठकर बेड पर मेरे साथ नही बैठ सकती थी. हमारे हिलने डुलने पर जैसे यह एक बंधन लगा हुआ था, जो हमें वहाँ इस तेरह बैठाए हुए था. हम पत्थर की मूर्तियों की तरह जड़वत थे और उम्मीद कर रहे थे कि कुछ हो और हमे इस बंधन से छुटकारा मिल जाए.
अगर कुछ हो सकता था तो वो यही था कि वो कहती;”मुझे अब चलना चाहिए”
मैं उसे जाने नही देना चाहता था और मुझे यकीन था वो भी जाना नही चाहती है. मगर कहीं पर, मन के किसी अंधेरे कोने मैं एक आवाज़ हमें हमारे उस रात्रि साथ को वहीं ख़तम कर देने के लिए बार बार आगाह का रही थी. उस महॉल मैं बहुत कुछ हो जाने की संभावना थी.
उसने सिर्फ़ इतना कहा था कि उसे अब सोने के लिए जाना चाहिए मगर उसने अपनी जगह से उठने जी कोई कोशिश ना की, वो वैसे ही बैठी थी. तब मुझे लगा कि उसने मुझे एक छोटा सा अवसर दिया है.
"मगर क्यों? तुम क्यों जाना चाहती हो माँ?" जब मेरे मुँह से वो लफ़्ज निकले तो मैं उसकी प्रतिकिरिया को लेकर डरा हुआ था
मैं डर रहा था क्योंक मुझे लग रहा था कि उसने मुझे जो मौका दिया है वो अचेतन मन से दिया है, इसलिए हो सकता है वो मेरे लफ्जो के पीछे छिपे मेरे मकसद को पढ़ ना पाए. मैं नही चाहता था कि वो जाने के लिए सामने टरक दे; कि वो थकि हुई है या उसे नींद आ रही है जा रात बहुत हो गयी गई. मैं उसे यह कहते हुए सुनना चाहता था कि वो इसलिए जाना चाहती है क्योंकि उसे डर था कि अगर वो वहाँ और ज़्यादा देर तक रुकी तो कुछ ऐसा हो सकता था जो नही होना चाहिए था.
मैं जानता था कि वो भी इस बात को महसूस कर सकती है कि हमारे बीच कुछ होने की संभावना है, इसलिए वो यह बात अपने होंठो पर ला सकती थी. असल मैं खुद मुझे कोई अंदाज़ा नही था कि अगर वो वहाँ रुकी तो क्या हो सकता था. हमारे रिश्ते की मर्यादा इतनी उँची थी कि उस समय भी, उन हालातों मैं वहाँ इस तरह उसके सामने बैठ कर मैं ज़्यादा से ज़्यादा एक मधुर चुंबन की उम्मीद कर सकता था. हालांकी मेरी पेंट में मेरा पत्थर की तरह तना हुआ लॉडा इस बात की गवाही भर रहा था कि अगर वो ज़्यादा देर वहाँ रुकती तो क्या क्या हो सकता था.
मेरा लॉडा तना हुया था! मैं कामोउन्माद में जल रहा था! और मैं कबूल करता हूँ कि मेरी इस हालत की वेजह मेरी माँ थी, मगर रोना भी इसी बात का था कि वो मेरी माँ थी.
मैं जानता था कि उसकी हालत भी कुछ कुछ मेरे जैसे ही है. हम एक दूसरे के इतने पास पास बैठे थे कि एक दूसरे के जिस्म की गर्मी को महसूस कर सकते थे. मगर इस धरती पर जीते जी यह नामुमकिन था कि हम अपनी उत्तेजना की उस हालत को एक दूसरे के समने स्वीकार कर लेते, या एक दूसरे को इस बारे में कोई इशारा कर सकते या वास्तव में हम अपनी उत्तेजना को लेकर कुछ कर सकते.
उसने मेरी बात का जवाब बहुत देर से दिया. वो अपने पैरों पर नज़र टिकाए फुसफसाई, "मुझे नही मालूम"
मुझे लगा कि अनुकूल परिस्थितियों मैं उसका जबाब एकदम सही था. उसने उन चन्द लफ़्ज़ों में बहुत कुछ कह दिया था.
"यहाँ पर हमारे सिवा और कोई नही है" मैने भी फुसफसा कर कहा. मेरी बात सीधी सी थी, मगर उन हालातों के मद्देनज़र उनके मायने बहुत गहरे थे.
"लेकिन अगर मैं रुकती भी हूँ तो हम करेंगे क्या?" उसका जबाव बहुत जल्दी और सहजता से आया मगर मुझे नही लगता था कि वास्तव में उन लफ़्ज़ों का कोई खास मतलब भी था.
मेरे पास लाखों सुझाव थे कि उसके रुकने पर हम क्या क्या कर सकते थे मगर मेरे मुँह से सिर्फ़ इतना ही निकला, "कुछ भी माँ, जो तुम्हे अच्छा लगे"
हम वहाँ कुछ देर बिना कुछ किए ऐसे ही खामोशी से बैठे रहे. शायद यही था जो हम कर सकते थे, बॅस खामोशी से बैठ सकत थे, यह सोते हुए कि वास्तव में हम क्या क्या कर सकते थे, बिना कुछ भी वैसा किए.
अंततः खामोशी असहाय हो गई. वो और ज़्यादा देर स्थिर नही बैठ सकती थी. वो एकदम से उठकर खड़ी हो गयी.
मैं उसके उस तरह एकदम से उठ जाने से डर सा गया. मैं भी उसके साथ उठ कर खड़ा हो गया, इसके फलस्वरूप अब हम एक दूसरे के सामने खड़े थे.
हम एक दूसरे के बेहद पास पास खड़े थे. हम एक दूसरे के सामने रात के गेहन सन्नाटे में चेहरे के सामने चेहरा किए खड़े थे.
उसने पहला कदम उठाया, शायद वो इसके लिए वो मुझसे ज़यादा तय्यार थी.
वो आगे बढ़ी और उसने मुझे आलिंगन में ले लिया. मुझे इसकी कतयि उम्मीद नही थी;इसलिए मैं उसके आलिंगन के लिए तैयार भी नही था.
उसने अपनी बाहें मेरी कमर के गिर्द लप्पेट दी और तेज़ी से मुझे अपने आलिंगन में कस लिया. मैने प्रतिक्रिया में ऐसा कुछ भी नही किया जिसकी उसने उम्मीद की होगी. मैने बहुत ही बेढंग और अनुउपयुक्त तरीके से उसे अपने आलिंगन में लेने की कोशिश की मगर इससे पहले कि मैं उसे अपने आलिंगन में ले पाता , उसने तेज़ी से मुझे छोड़ दिया और उतनी ही तेज़ी से वो वहाँ से निकल गयी.
उसने अपने अंदर जो भावनाओं का आवेश दबाया हुया था मैं उसे महसूस कर सकता था. मुझे उम्मीद थी उसने भी मेरे अंदर के उस आवेश को महसूस किया होगा. अगर इशारों की बात की जाए तो हम दोनो पूरी तेरह से तैयार थे मगर हमारे कुछ करने पर मर्यादा का परम प्रतिबंध लगा हुया था. हम सिर्फ़ वोही कर सकते थे जो हमारे रिश्ते में स्वीकार्या था; पहले के हालातों के मद्देनज़र एक चुंबन; अब के हालातों अनुसार एक आलिंगन.