Notifications
Clear all

Incest [Completed] आखिर वो दिन आ ही गया | Aakhir Wo Din Aa Hi Gaya

33 Posts
3 Users
2 Likes
890 Views
Posts: 722
Topic starter
Prominent Member
Joined: 4 years ago

गान्ड खुल चुकी थी दीदी की। दीदी काफी देर बाद उठीं और नदी में जाकर नहाने लगीं। फिर दीदी ने आज फिर वह दिन याद दिला दिए। दीदी-“याद है जब तुमने पहली बार मेरी चूत खोली थी। कितना दर्द हुआ था मुझे। आज तो बहुत ही तकलीफ है। और फिर दोस्तों… यह एक मामूल बन गया। अब कामिनी और दीदी दोनों ही चुदवाति थीं। फरक सिर्फ़ इतना था की दीदी अब चूत में मनी छोड़ने को मना करतीं, जबकी कामिनी की चूत मेरी मनी से भरी रहती।

आखिर वो दिन आ ही गया | Aakhir Wo Din Aa Hi Gaya | Part 30

और एक साल और बीत गया इसी तरह। 1953 अगस्त… वोही हसीन दिन गुजर रहे थे। अक्षय अब सवा साल का हो चुका था। 15 साल से ज्यादा का अरसा हम यहाँ गुजार चुके थे। मैं अब अपनी दोनों बहनों को चोदता। अब उनकी चूतें और गांडे खुल चुकी थीं। अब दीदी फिर अपनी चूत भर लिया करतीं थीं मेरी मनी से और इसका नतीजा बहुत जल्द आया, अबकी दफा।

यह साल के अंत की बात है जब कामिनी और दीदी दोनों के पीरियड एक के बाद एक रुक गये और अगले ही महीने हमारे शक यकीन में बदल गये। मेरी दोनों बहनें उमीद से थीं। दोनों को हमल ठहर गया था। दोनों के पेट बाहर चले आ रहे थे। मुझे याद है जरा जरा, दीदी दिसंबर 1953 में और कामिनी जनवरी 1954 में प्रेगनेंट हुई। और अब हमें इंतजार था आने वाले मेहमानों का, जो बहुत जल्द हमारी इस छोटी सी दुनियाँ में आँख खोलने वाला था।

अक्षय अब दो साल का हुआ ही चाहता था। और उसके दूसरे बहन भाई अब आना ही चाहते थे।

बस दोस्तों अब मेरी दास्तान के कुछ आख़िरी लम्हात के चंद ही वाकियात हैं जो मैं आपको अगली किस्त में सुना दूंगा। और वहीं हमारा साथ ख़तम होगा। बस मैं कह चुका।

मेरे दोस्तों, मेरे यारों, बस अब यह बूढ़ा बहुत थक गया है। जिंदगी मजीद मोहलत देने को तैयार नजर नहीं आती। ना जाने कब यह लड़खड़ाती जबान बंद हो जाए। ना जाने कब यह काँपते लब थम जाएूँ। अब आप मेरी जिंदगी के आख़िरी वाकियात जरा मुख़्तसिर मुलाहिजा फेरमा लें। फिर मोका मिले ना मिले।

यह घालिबान 1954 का साल है। दीदी ने इसी साल एक लड़की को जनम दिया है। अगस्त में और अगले ही महीने यानी सेप्टेंबर में कामिनी भी एक खूबसूरत से लड़के को जनम दे चुकी है। दीदी ने लड़की का नाम राजेश्वरी जब की कामिनी और मैंने अपने बेटे का नाम अजय रखा है। मुझको अपनी छोटी बहन कामिनी से होने वाला बच्चा बहुत प्यारा लगा। उसमें कामिनी और मेरी बहुत झलक है। असल में मैं और कामिनी, हम दोनों बहन भाई की शकलें काफी हद तक एक जैसी हैं। नाजुक सा नाक नक़्शा, और यही हमारे बच्चे को मिला था। अब हम सबकी मसरुफ़ियत बढ़ सी गई थीं। दीदी और मेरा बेटा अक्षय तो अब तीन साल का हो चुका था। बातें भी करने लगा था दीदी अब अपना टाइम राजेश्वरी की देख भाल में बिताती और कामिनी अपने पहले बच्चे अजय में बिजी होती।

इसी तरह वक्त गुजर रहा था। हम अब भी एक दूसरे से मजे लेते, अब कोई झिझक नहीं थी। अक्सर मैं और कामिनी नदी पर नहाने जाते तो बच्चे को वहाँ दरख़्त के नीचे लिटा देते और खुद नहाकर फिर दरख़्त के नीचे आकर एक दूसरे के जिस्मों में खो जाते। कभी दीदी भी वहाँ आ जातीं तो वो भी शरीक होतीं। अब रात में हम तीनों ही एक दूसरे के साथ सेक्स करते और एक दूसरे को आराम पहुँचा कर आराम से सो जाते। अक्षय तेज़ी से बड़ा हो रहा था।

अब मैं भी माहिर हो चुका था और मेरी दोनों बहनें भी। वो मेरी मनी अपनी चूत में ही छुड़वाती लेकिन अपनी चूत को सिकोड कर उसको बच्चेदानी में जाने ही नहीं देतीं और फौरन उकड़ू बैठकर मनी को बाहर गिरा देतीं। या फिर मनी छूटने से पहले अगर मेरा लंड कामिनी की चूत में होता तो मनी छूटने से पहले ही दीदी मेरा लंड निकाल कर अपने मुँह में ले लेतीं और मेरी मनी पी लेतीं और अगर दीदी की चूत में होता तो कामिनी चूत चुसते हुये मेरा लंड खींच लेती और मेरा लंड अपनी मनी उसके मुँह में भर देता। इसी तरह वक्त का चक्कर चलता रहा।

हमारे बच्चे हमारे सामने बड़े होते गये। मुझे याद है के यह 1957 का साल था। महीना घालिबान फरवरी था सर्दियाँ थीं लेकिन काबिल-ए-बर्दाश्त। हमें यहाँ आए 19 साल हुआ ही चाहते थे। मेरी उमर इस वक्त 28 साल, राधा दीदी की 34 साल, जब की कामिनी की 25 साल थी। हम तीनों भरपूर जवान थे लेकिन अब दीदी का हसीन जिस्म ढलने लगा था, अब उनमें वो पहले जैसा जोश भी नहीं रहा था। मुझे आज भी वो दिन याद आते हैं, जब दीदी बढ़ बढ़ कर मेरे लंड पर हमले किया करती थीं।

अपनी चूत फैला-फैलाकर उसे ज्यादा से ज्यादा अंदर किया करती थीं। कई-कई दफा उनकी चूत मनी छोड़ती थी। फिर भी उसकी आग सर्द नहीं होती थी। जब चूत चुसवाती थीं तो दहकती चूत की गर्मी से मेरे होंठ जलने लगते थे, मम्मे बिल्कुल गोल हुआ करते थे, जो चुदाई के वक्त बेहद खूबसूरत तरीके से हिला करते थे। वोही दीदी अब कभी कभार ही चुदाई करवाया करती थीं। ज़्यादातर लंड चूस कर ही फारिग या अपनी चूत चुदवा लिया करती थीं।

चूत में भी अब वो मजा नहीं रहा था। चुसते वक्त काफी देर बाद पानी आता था और चुदाई के वक्त लंड अभी जाता ही था की चूत से पानी टपकने लगता। और चूत काफी खुल ही गई थी। दो बच्चे पैदा करने के बाद। कुछ ही देर बाद चूत से अजीब भड़ भड़ की आवाजें आने लगती। मम्मे अब गोल नहीं रहे थे। ढलक से गये थे,

बच्चों को दूध पिलाने की वजह से और निप्पल काले पड़ चुके थे। गान्ड भी अब काफी गोश्त चढ़ा चुकी थी और कमर काफी मोटी हो गई थी।

जब की कामिनी का जिस्म अब भी कसा हुआ था, मम्मे भी टाइट थे। हाँ निप्पल उसके काफी बड़े हो गये थे क्योंकी वो भी बच्चे को दूध पिलाया करती थी। चूत अब भी गरम और रसभरी थी, चूसने में मजा आता था। गान्ड भी कसी हुई थी। गान्ड का सुराख खुला हुआ था। मैं डालता ही रहता था। उसमें। हम अब भी नंगे ही रहते थे कपड़े हम बच्चों को पहनाया करते थे की उनको मौसम की सजख्ियों से बचा सकें। यह ऐसी ही एक शाम का ज़िकर है।

To be Continued

Reply





Posts: 722
Topic starter
Prominent Member
Joined: 4 years ago

बच्चों को दूध पिलाने की वजह से और निप्पल काले पड़ चुके थे। गान्ड भी अब काफी गोश्त चढ़ा चुकी थी और कमर काफी मोटी हो गई थी।

जब की कामिनी का जिस्म अब भी कसा हुआ था, मम्मे भी टाइट थे। हाँ निप्पल उसके काफी बड़े हो गये थे क्योंकी वो भी बच्चे को दूध पिलाया करती थी। चूत अब भी गरम और रसभरी थी, चूसने में मजा आता था। गान्ड भी कसी हुई थी। गान्ड का सुराख खुला हुआ था। मैं डालता ही रहता था। उसमें। हम अब भी नंगे ही रहते थे कपड़े हम बच्चों को पहनाया करते थे की उनको मौसम की सजख्ियों से बचा सकें। यह ऐसी ही एक शाम का ज़िकर है।

आखिर वो दिन आ ही गया | Aakhir Wo Din Aa Hi Gaya | Last Part 31

मैं साहिल पर आग जलाए बैठा था। पानी के चंद साँप आग पर भून रहा था। रात की तरीकी तेज़ी से फैलने को तैयार थी। बच्चे सामने ही साहिल की ठंडी रेत पर खेल रहे थे। दीदी और कामिनी नजर नहीं आ रहीं थीं, मैं बैठा सूरज को पानी में गायब होते देख रहा था। मेरे देखते ही देखते गहरे पानी में आग का देवता गायब हो गया। और महज पानी को अपना रंग देकर रात की देवी के लिए जगह बना गया। और रात की देवी दुनियाँ पर कब्ज़े के लिए उतर आई।

मैं देख रहा था। टिमटिमाते सितारे हर रोज की तरह एक एक करके रोशन हो रहे थे। बेहद खूबसूरत मंजर था। और फिर मैंने वो देखा जिसको देखने के लिए हमारी नजरें 19 साल से तरस रहीं थीं। वो एक जहाज की रोशनियाँ थीं जो काले गहरे समुंदर और चमक ती दमक ती आसमान के दरम्यान यूँ रोशन थीं जैसे सितारों का कोई कारवा नीचे जमीन पर उतर आया हो। मैं काफी देर उन रोशनियों को देखता रहा। मेरा जेहन इसको समझ नहीं पा रहा था, जो मैं देख रहा था। जिसकी देखने की हमें ना जाने कब से ख्वाहिश थी। वो आज मेरे सामने हक़ीकत बना हुआ था।

कभी कभार यूँ भी होता है दोस्तों… शायद आपको भी कभी इसका तजुर्बा हुआ हो की आप किसी चीज की ख्वाहिश बेहद रखते हों और वो दिल की ख्वाहिश अपनी तमामातर हक़ीकतों के साथ आपके सामने आ खड़ी हो तो आप कुछ देर हैरत और बे- यकीनी की एक अजब कैफियत में गुम हो जाते हैं। तो यही हाल इस वक्त मेरा था। मुझको यकीन नहीं आ रहा था जो मैं देख रहा था। और फिर मुझे पीछे से दीदी की चीखने की आवाज आई जिसने मेरे दिमाग़ को एकदम झंझोड़ दिया और मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।

और कुछ ही देर में हम एक बहुत ही बड़ा आग का आलाव साहिल पर रोशन कर चुके थे। और साहिल पर खड़े हलक फाड़ फाड़ कर चीख रहे थे और हमारी चीखों ने तो खैर नहीं लेकिन साहिल पर जलती आग ने जहाज को हमारी तरफ मुतवज्जा कर ही लिया। और एक बड़ी कश्ती जहाज से अलग होकर साहिल की तरफ बढ़ने लगी। जिसका धुंधला सा अक्स हम जहाज की तेज रोशनियों में बखूबी देख सकते थे और तभी दीदी को अपनी नंगेपन का एहसास हुआ और वो कामिनी को लिए तेज़ी से झोंपड़े की तरफ बढ़ गईं और कुछ ही देर में हम सब अपने उन पूरे और निहायत ही ख़स्ता हाल कपड़ों मैं खड़े थे जो ना जाने कब से हमने संभाल रखे थे।

वह कपड़े हमारे पूरे जिस्मों को तो नहीं लेकिन दीदी और कामिनी के पोशीदा हिस्सों को ढांप ही रहे थे। रहा मैं तो घुटनों से फटि हुई एक पतलून पहने खड़ा था। जो मेरी कमर पर बंद भी नहीं हो रही थी। और कुछ ही देर में कश्ती साहिल से आ लगी। वो एक इंललीश नेवी का जहाज था। जो किसी मिशन पर हिन्दुस्तान जा रहा था। और कुछ ही देर में हम अपने मुख़्तसिरसामान और अपने तीन बच्चों के साथ तेज़ी से जहाज की तरफ बढ़ रहे थे। मैं कश्ती के पिछले हिस्से पर बैठा था। मेरे सामने जजीरे पर आग अब भी रोशन थी। जिसकी रोशनी में कुछ दूर बना हमारा झोंपड़ा नजर आ रहा था।

यह सब मंज़र दूर हो रहे थे मेरी नजरों से।

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने घर से दूर जा रहा हूँ, वो घर जहाँ मैंने अपनी पूरी जवानी गुजार दी, जहाँ मैंने अपनी जिंदगी के कीमती 19 साल गुजार दिए। जहाँ का एक एक पौधा, एक एक दरख़्त, एक एक पत्थर मेरे बचपन से जवानी के सफर का चश्मदीद गवाह था। जहाँ की हवायें, नदी का ठंडा पांनी, ठंडी रेत… क्या यह सब मैं कभी दोबारा देख सकूँगा … कभी नहीं… मैं हमेशा के लिए जुदा हो रहा था। मैं जा रहा था। आए मेरे प्यारे घर मैं जा रहा हूँ। मैं अब कभी नहीं लौटूंगा।

और मंजर धुंधलाते गये और हम जहाज पर पहुँच गये। ना जाने जहाज के कप्टन से दीदी ने क्या कहा… क्या नहीं… मैं नहीं जानता। वो हमें बाम्बे के साहिल पर उतारने पर रजामंद हो गया। शायद दीदी ने एक दो रातें कप्टन के साथ उसके केबिन में गुजारीं, उसका नतीजा यह हुआ की हम बाम्बे के साहिल पर निहायत ही खामोशी से उतरने में कामयाब हो गये। क्योंकी आप जानिए हमारे पास हमारी कोई पहचान नहीं थी, ना ही कोई सफरी दस्तावेज, हमें पहनने को ढंग के कपड़े और कुछ पैसे देकर कप्टन ने बाम्बे के एक सुनसान साहिल पर पहुँचा दिया।

और हम ना जाने क्या कुछ सहते हुये, कहाँ-कहाँ भटक ते हुये आख़िर एक दूर दराज कस्बे में पहुँचे। रास्ते में कई जगह कामिनी और दीदी ने अपने जिस्म का इस्तेमाल किया और आख़िर हमने एक कस्बे में अपना झोंपड़ा डाल दिया और रहने लगे। वहाँ के लोगों के लिए दीदी मेरी बड़ी बहन थी जिसका पति मर चुका था। और कामिनी मेरी बीवी थी।

कुछ ही दिन में दीदी की शादी हमने वहाँ कस्बे के एक बनिये से कर दी। दीदी ने खुद ही इसरार किया था। कुछ ही दिन में बनिया मर गया। अब हमारे हालात काफी बेहतर हैं। बनिये ने काफी रकम छोड़ी थी हमने अपना घर पक्का कर लिया।

1976 में कामिनी मर गई। जी हाँ मेरी छोटी बहन कामिनी, जिसने अपनी जवानी अपने भाई के हवाले कर दी थी। जिसका बचपन मैंने ही जवान किया था जिस कली को मैंने ही फूल बनाया था वो फूल 44 साल की उमर में मुझे छोड़ गया। उससे मेरा एक बेटा है अजय। मैं बहुत रोया उस दिन। दीदी भी बहुत रोईं लेकिन जिसने जाना था वो चला गया। और दीदी ने मेरा साथ 12 साल और दिया। और 65 साल की उमर में 1988 में दीदी भी मुझे छोड़ गईं।

बस मैं ही रह गया। राजेस्वरी की शादी हो चुकी थी। दोनों बेटे बाम्बे जाकर कमा खा रहे थे। अब मैं हूँ, मेरी तन्हाई है। मेरी उमर 86 बरस हो चुकी है। ना जाने कब तक जी सकूंगा मैं। वो जजीरा अब भी कभी ख्वाब में देखता हूँ मैं। जो यहाँ से बहुत दूर ना जाने कहाँ खो गया है। कभी सोचता हूँ क्या ही अच्छा होता अगर हम अब भी वहाँ उस जजीरे पर होते। मैं कम से कम अपने घर में तो मरता। मुझे बहुत याद आता है। मुझे वो दिन भी याद आते हैं। कामिनी की जवानी, दीदी की राजो नियाज करती ज़ज्बात से बोझल आवाज। आअहह… ना जाने कहाँ खो गया सब कुछ। अब तो सिर्फ़ तन्हाई है। ना वो जज़ीरा रहा, ना वो नाजुक जिस्म रहे, ना वो ज़ज्बात रहे, ना वो गरम सांसें रहीं। अब तो बस तन्हाई वहसत, अजीयत मेरे चारों तरफ बसेरा किए हुए है।

ना जाने कब मौत की देवी मुझ पर मेहरबान होकर मुझे वहाँ पहुँचा दे जहाँ मेरी दोनों बहनें मेरा इंतजार कर रहीं हैं। दोस्तों… मेरी यह दास्तान ना जाने आपके दिलों पर क्या असर डाले। आप बहुत जल्द भूल जाएँगे मुझे, मेरी कहानी को। लेकिन यह मेरी जिंदगी की वो सच्चाइयां हैं, इनमें वो हक़ीकत छुपी हुई हैं, जिंदगी के किसी ना किसी मोड़ पर आपको मेरी, मुझ बुढ़े की कही हुई कोई ना कोई बात याद आती रहेगी। मैंने आप को अपनी जिंदगी के वो राज खोलकर बता दिए। जो बहुत काबिल-ए-फखर ना सही, लेकिन जिंदगी की फितरत की सच्चाईयों पर मुबनी थे।

अब प्रेम का आख़िरी सलाम आप सबको बोल कर बहुत जल्द मैं यह दुनियाँ उसी तरह छोड़ जाऊँगा जिस तरह मैंने अपनी आँखों के सामने उस जजीरे को धुंधलाता देखा था।

समाप्त

THE END

Reply





Page 7 / 7